संदीप खमेसरा ✍️
उदयपुर। “जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चंदन विष ब्याप्त नहीं, लिपटे रहत भुजंग।
“चंदन जैसी उत्तम प्रकृति के वृक्ष पर विषधारी सर्पों के लिपटे रहने पर भी उनके विष का असर चंदन पर नहीं होता।
संगत का असर तभी पड़ता है जब हम संगी के प्रभाव में आ जाते हैं। बचपन के दस गहरे दोस्त। पांच शराबी और कबाबी। तीन अय्याश और जुआरी। दो बहुत व्यवस्थित और शरीफ। संभावना सबके साथ है कि वे बदल सकते हैं। कुछ शराबी, शरीफ भी बन सकते हैं और कोई शरीफ, अय्याश या कबाबी में परिवर्तित हो सकता है। संगति का प्रभाव किस तरह पड़ता है, यह समझना चाहिए।
हर व्यक्ति की एक प्रकृति होती है। यह नित्य परिवर्तनशील है। पंच इंद्रियों का अपना भोजन है। आंख का भोजन है देखना, कान का सुनना, त्वचा का स्पर्श, नाक का गंध और मुख का खाद्य पदार्थ। इन इंद्रियों से जो भी हम ग्रहण कर रहे होते हैं, इंद्रियों का राजा मन उसे फिल्टर करके भाव में परिवर्तित करता है। विशेष बात यह है कि हमारी मूल प्रकृति के अनुसार ही भाव बनते हैं और वही प्रकृति उन भावों से और और पोषित होती जाती है। दो व्यक्ति। दोनों ने एक गरीब पीड़ित व्यक्ति को देखा। दयालू प्रकृति वाले को उसकी मदद करने का विचार आया। निर्दयी का विचार नफरत का था। दोनों की आंख के भोजन ने उनकी व्यक्तिगत प्रकृति के अनुसार भाव पैदा किया और उसी मूल प्रकृति को पुष्ट किया।
हम कितना अधिक चीज़ों, विषयों और विकल्पों से प्रभावित (Influence) हो जाते हैं, यह हमारे विवेक की गहराई पर निर्भर करता है। यही विवेक, मन को प्रकृति प्रदत भावों को पोषित करने से रोक भी सकता है।
आजकल तो जमाना ही इन्फ्लूएंसर्स का है। यूट्यूब, इंस्टाग्राम, फेसबुक आदि सोशल मीडिया पर लाखों रिल्स प्रतिदिन देखी जाती हैं। आपकी जैसी प्रकृति होती है, वही देखना आप पसंद करते हैं। फिर यह प्लेटफार्म्स वैसा ही प्रतिदिन आपको परोसते हैं। आप एक विशेष मायाजाल में फंस जाते हैं। आज अधिकांश लोग इन्हीं के दुष्प्रभावों से अपनी समझ और विवेक को ही गिरवी रख बैठें हैं। देर रात यही सब देखना, अगले दिन दोपहर के आसपास उठना, कोई शारीरिक श्रम नहीं, अमर्यादित, असंयमित और असमय का खानपान, वही चीजें पसंद आ रही हैं, जो जीवन का नाश करेंगी….फिर भी भ्रम का पर्दा इतनी व्यापकता से पड़ा है कि सारी बुद्धि ही हर ली। बुद्धि के बिना विवेक कैसे जागृत हो…?!
नारकीय जीवन के लिए अगले जन्म की आवश्यकता ही पड़ने वाली नहीं है। आज की जीवनशैली, कल के विनाश की भूमिका तैयार कर रही है। जानते हुए भी, बदलने को कोई राज़ी नहीं!
बचने का उपाय…!? धर्म के प्रति संवेदनशीलता विकसित करनी होगी। विवेक और ज्ञान के जागरण के बिना बदलाव संभव भी नहीं है।
चेतना या परमात्मा की विशिष्टता क्या है?
वह निर्दोष है। निर्द्वंद्व है। निरपेक्ष है। निर्विकार है। समस्त राग और द्वेष से मुक्त है। जब भक्ति या ध्यान के द्वारा उसका संग होने लगता है, तो पहले ज्ञान और विवेक आने लगता है। उसके विशिष्ठ गुण परिपक्व होने की संभावना हम में भी बलवती हो जाती है, बेशर्ते हम उन गुणों को जानकर उन्हें अपने जीवन में उतारने का विचार रखते हों।
चेतना का यह संग, हमारी प्रकृति का ही रूपांतरण कर देने में सक्षम है। प्रकृति के बदलाव के साथ ही हमारे समस्त कर्म का क्षेत्र बदल जाता है और परिणाम भी!
अवगुणों से व्यापक गुणों की ओर अग्रसर हम हो सकें, यही धर्म का कार्य है। चेतना का स्पर्श करना या परमात्मा का अनुभव हो जाना बड़ी बात है। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि उसके गुणों की अभिव्यक्ति हमारे व्यक्तित्व में होने लगे।
जगाएं अलख…!? कुछ बदलेगा, तभी तो कुछ बदलेगा!!







